चलू कनि
भूमिका बदलि क
देखल जाय
दर्शक केँ
नर्तक-गायक
प्रदर्शक, वक्ता
आ प्रदर्शक
लोकनिकेँ
के श्रोता-दर्शक
बनाओल जाय
चलू आई
फैंसी कारमे
पैरे चलनाहर
लोककेँ
बैसाओल जाय
चलू आई
खाली जेबीमे
भरती जेबी
सँ किछु
निकालि क’
राखल जाय
चलू ने आई
कनि भेदभाव
मेटा क’
देखल जाय
चलू ने आई
कनि अन्हार
घर सभमे
दीप लेसल
जाय
चलू आई कनि
भरल खजाना
बिलहि देल जाय
चलू आई कनि
एकरत्ती
इजोरिया
अन्हरिया केँ सेहो
परसल जाय
चलू ने आई
सभटा विभेद
सँ उठि क’
अगबे मनुक्ख केँ
देखल जाय।
दू रंगक लोक
मोटामोटी दू रंगक
लोक देखलौं
लिबनाहर आ लिबोउनहार
टहलुक आ अरहौनहार
बौक आ बजनिहार
कोरिया कातर
आ बिलहौनिहार
सेवा केनहार
आ करौनिहार
भितरघुन्ना आ कि फंचार
उसठ दुनिया
झमा क’ खसल विचार
फाटि क’
ओदरि गेल विवेक
लोकमे सँ जेना
लोके हेरा गेल
बरु दूधमे सँ
नेन बिला गेल
कुसियार सँ
बहरा गेल
मिट्ठ रस
मिरचाई सँ
चोरा लेलक क्यो
सुरसुरी
मर! ई दुनिया
एतेक उसठ आ
अनोन किएक
भ’ गेलै।
रीढ़क हड्डी
जहन रीढ़क हड्डीए
तोड़ि लेब
त कुर्सी
लइए क’
की करब
सोझ भ’ बैसल त’
हैत नहि
भलहुक
धब सिन
कुर्सी पर
खसि पडब अनेरे
गोबरक
चोत जेकाँ।
काछुए रहितौं ने
खोलेमे रहबाक छल
त काछुए रहितौंने
ज मुड़ी बालुएमे
ढुकौन रखबाक’
छल त’
शुतुरमुरगे होइतौं ने
ज सीखबाक छल
ड्सनाइए त’
गहुमने होइतौं ने
ज बिन्हब अपन
प्रकृति बनेबाक छल
त बिरह्निए हेबाक
छल ने
ज दूरि करबाक
छल अनकर
परसल थारी त’
गन्हकिए होइतौं ने
ज हेबाके अछि किछु
त किएक नहि भ’जाइ
गबैत कोयली, उमकैत नदी
घनगर वृक्ष वा
गमकैत फूल।
बिसरि जाइ छी
हमरा लोकनि
अपन कर्तव्य
मोन रहि जाइत
अछि छूछे
अधिकार किए?
किए बिसरा जाइत
अछि अनेरे
अपन मनुक्ख
भेनाई?
बाघक चांगुर मे
हरिण वा लोक
एक्के रंग
नचार
ओतय कहाँ छै
बचबाक लेल
कोनो उपचार
बिलाइक
चांगुरमे मूस
कनिकबे कालमे
अपन अंत जानि
गोहराबय लागल
अछि अपन
देवता पितर
ताहि सँ कि
बिलाइक हृदयमे
मात्सर्य उमड़ि
जाइछ?
बिलाई मूसक
देहक सभटा
मासु खा क’
ओकर रोइयाँ सँ छारल चाम
कोठीक गोरा तरमे
छोड़ि दोसर
मूसकेँ पकड़बाक लेल
धपायल रहैत छै
मनुक्खे निर्माण
केने छलै
बेर-बेगरताक
चीज-बौस केर
बिक्री-विनिमय
लेल बजारक
मुदा की द’क’
की लेबाक छल
तेकर अवगति
नहि रहलै
ओ त’ जानिए
नहि सकलै
जे कखन ओ
अपनहि
बाजार लेल
एकटा साधन
बनि क’
रहि गेलै
बजार एक्के
बेरमे हजारक
हजार लोककेँ चांगुरमे
झपटि क’
तरहत्थी पर
तमाकुल जेकाँ
चुना क’
कल्ला तर
दाबिक चलि
देलक अछि
फेर सँ
नव-नव
शिकारकेँ
फुसला-पोलहा क
ओकर शोणित
पीबाक लेल
मनुक्ख लेल
प्रकृति देने छलै
सभ किछु
धरि मनुक्ख केँ
संतोख कहाँ
अपन विकासक
नाम पर
कटैत रहल
ओहि गाछक
जड़ि जकर
टिकासन पर
ओकर चास बास छलै
मनुक्ख अपने
बनाओल
इंद्रजालमे
ओझरा क
औना रहल छै।
दुत्कारे जाने का दर्द
सहा जाना
कठिन था
तो उसने
पलटकर
दर्द को ही
दुतकारा था
दर्द ने उसे
दोनों हथेलियों पर
उठा लिया
वह उपेक्षा से
घबराई थी
पर उसकी मार ने
उसे कंधों
पर बैठाकर
उसकी दृष्टि को
दूर तक
स्पष्ट कर दिया
वह अपमान से
टूटी थी
पर अपमान ने
उसे समझाया
दूसरों की
गलती में भला
तुम्हारा क्या दोष
वह चोट खाकर
तिलमिलाई थी
पर चोट धीरे-धीरे
उसका पथ-प्रदर्शक
बन गया